
राजस्थान विधानसभा चुनाव 2018: ये हैं अहम जातियां, जिनके हाथों में रहती है सत्ता की चाबी
राजस्थान विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा और कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक को साधने में व्यस्त हैं, लेकिन इस बार गणित कुछ उलझा हुआ दिख रहा है.

नई दिल्लीः राजस्थान में सात दिसंबर को विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई है. इस बीच राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियां सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक को साधने में व्यस्त हैं, लेकिन इस बार गणित कुछ उलझा हुआ दिख रहा है. भाजपा और कांग्रेस को समर्थन करने वाली अहम जातियां इस बार अपने-अपने दलों से बिदकती दिख रही हैं. दरअसल, राज्य में राजपूत, जाट, गुर्जर और मीणा समुदाय राजनीतिक रूप से सबसे मुखर जातियां हैं. ये जातियां ही तय करती हैं कि राज्य की सत्ता किसके पास होगी. राज्य की आबादी में इन चारों की हिस्सेदारी करीब 30 फीसदी है. पिछले चुनाव में भाजपा की सीएम वसुंधरा राजे इन चार में से तीन जातियों राजपूत, जाट और गुर्जर को साधने में सफल रही थीं.
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राजपूत
राज्य में राजपूत समाज को परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थक माना जाता है. राजस्थान के सबसे बड़े राजपूत नेता भैरों सिंह शेखावत थे. उन्होंने जनसंघ के समय से इस जाति को अपने से जोड़कर रखा. 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद शेखावत ने दो बार राज्य की बागडोर संभाली. वह 1990 से 1992 और 1993 से 1998 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद 1992 में उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई थी. इससे पहले आपातकाल के बाद 1977 में राज्य में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उस वक्त भी वह सरकार के मुखिया बने. तब से राजपूत समुदाय भाजपा से खास तौर पर जुड़ा हुआ है. राज्य की 200 सदस्यीय विधानसभा में हर बार राजपूत समुदाय से 15-17 विधायक निर्वाचित होते रहे हैं. इसमें से अधिकतर भाजपा के विधायक होते हैं. मौजूदा विधानसभा में राजपूत समुदाय के 27 विधायक हैं जिसमें से 24 भाजपा के हैं. राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीब 5 से 6 फीसदी है और ये राज्य की 100 सीटों पर जीत-हार तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं.
लेकिन, इन दिनों राजपूत समुदाय भाजपा से नाराज है. पिछले साल गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर के विरोध में समुदाय के लोगों ने हिंसक विरोध प्रदर्शन किया था. इस दौरान कई राजपूत नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज किए गए थे. समुदाय के लोगों का कहना है कि सरकार में उनके नेता उनका साथ नहीं दे रहे हैं और उनके खिलाफ दर्ज मामले वापस नहीं लिए जा रहे हैं, जबकि इस साल दो अप्रैल को दलितों की ओर से कराए गए भारत बंद के दौरान हुई हिंसा के बाद दर्ज मामले वापस लिए जा चुके हैं. अनुसूचित जाति के नेता के इस मामले में सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब रहे.
ये हैं नाराजगी के कारण
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक श्री राजपूत सभा के अध्यक्ष गिरिराज सिंह लोटवाड़ा का कहना है कि हमारे खिलाफ दर्ज मामले को लेकर हमारे नेता चुप हैं. इसके बाद जोधपुर के समराऊ गांव में जाट समुदाय के लोगों द्वारा राजपूतों के घरों में की गई लूट से भी उनमें नाराजगी है. उनका आरोप है कि इस पूरी घटना के दौरान पुलिस मूकदर्शक बनी रही. अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में जब राजे राजपूतों की संस्था श्री क्षत्रीय युवक संघ की बैठक में गईं तो उनके खिलाफ नारेबाजी की गई. वहां पर भाजपा के दिग्गज नेता रहे जसवंत सिंह के समर्थन में नारे लगे. जसंवत सिंह को भाजपा से निकाल दिया गया है. उनकी तबीयत खराब है और वह कोमा में हैं.
फिल्म पद्मावत के खिलाफ विरोध का नेतृत्व करने वाले राजपूत नेता लोकेंद्र सिंह कल्वी ने हिंदुस्तान टाइम्स से कहा है कि अजमेर और अलवर लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार के पीछे की सबसे बड़ी वजह राजपूतों द्वारा उनके (भाजपा) खिलाफ प्रचार करना था. इन दिनों लोटवारा और अन्य राजपूत नेता प्रदेश के डिविजन मुख्यालयों पर भाजपा के खिलाफ अपने समुदाय को गोलबंद करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं.
वहीं जयपुर के वरिष्ठ पत्रकार अजीत राठौर ने इंडिया.कॉम से खास बातचीत में कहा कि राजपूत समुदाय भाजपा नहीं, निजी तौर पर वसुंधरा राजे से नाराज है. आनंदपाल प्रकरण के साथ ही जैसलमेर में चतुर सिंह एनकाउंटर और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाने से रोकने को, राजपूत समुदाय अपने खिलाफ मानता है. राजपूत समुदाय ऐसा सोचने लगा है कि वसुंधरा उनको कमजोर कर रही है. राज्य में इस समुदाय के राजनीतिक झुकाव के बारे में बात करते हुए राठौर कहते हैं कि जनसंघ के समय से आम राजपूत उसके साथ रहे हैं, जबकि इस समुदाय के राजा-महाराज कांग्रेस के करीब थे. आज राजपूतों में ऐसी राय बनती जा रही है कि विधानसभा में वसुंधरा के खिलाफ, लेकिन लोकसभा में पीएम नरेंद्र मोदी को वोट करना है.
गुर्जर और मीणा समुदाय
परंपरागत रूप से गुर्जर समुदाय को भाजपा का वोट बैंक माना जाता है, क्योंकि उनकी कट्टर विरोधी जाति मीणा, परंपरागत रूप से कांग्रेस का समर्थन करती है. लेकिन 1980 में इस समुदाय के नेता राजेश पायलट के राजनीति में आने और कांग्रेस के टिकट पर भरतपुर से सांसद चुने जाने के बाद गणित उलझ गया. मौजूदा समय में इस जाति के सबसे कद्दावर नेता राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट हैं. सचिन पायलट से पहले सबसे बड़े गुर्जर नेता नाथू सिंह थे, जो 1977 में भारतीय लोकदल के टिकट पर दौसा से चुनाव जीते थे. मौजूदा समय में गुर्जर मानते हैं कि उनके पास अपनी जाति के नेता सचिन पायलट को सीएम बनाने का सबसे उपयुक्त समय है. दूसरी तरफ गुर्जर समुदाय भी इन दिनों भाजपा से नाराज है. भाजपा उनको आरक्षण दिलवाने में विफल रही है. 2007 और 2008 के गुर्जर आंदोलन के दौरान हिंसा में करीब 70 गुर्जर युवक मारे गए थे.
कांग्रेस के करीब दिख रहे गुर्जर
मौजूदा समय में गुर्जर समुदाय के लोग कांग्रेस की ओर झुकते हुए दिख रहे हैं. ऐसे में भाजपा गुर्जर समुदाय की परंपरागत विरोधी मीणा समुदाय पर दांव लगा रही है. पार्टी ने इस समुदाय के सबसे बड़े नेता किरोड़ी लाल मीणा को फिर से पार्टी में शामिल कर लिया है. वसुंधरा राजे के साथ मतभेद के कारण पूर्व सांसद मीणा ने 2008 में पार्टी छोड़ दी थी. ये दोनों जातियां दौसा, करोली, सवाई माधोपुर और टोंक जिले में करीब-करीब बराबर की संख्या में हैं. किरोड़ी लाल के भाजपा में शामिल होने से पार्टी को मजबूती मिलेगी वहीं दूसरी तरफ गुर्जर समुदाय खुद की राजनीतिक पहचान चाहता है. वह काफी लंबे समय से सत्ता से बाहर है. उन्हें सचिन पायलट में एक उम्मीद दिख रही है. ऐसे में जब गुर्जर समुदाय कांग्रेस को समर्थन करेगा तब मीणा समुदाय स्वाभाविक रूप से भाजपा की ओर झुकेगा. राज्य में इन दोनों जातियों की आबादी करीब-करीब बराबर है. दोनों 6-6 फीसदी के आसपास हैं.
वरिष्ठ पत्रकार राठौर कहते हैं कि करीब एक दशक पहले तक गुर्जर समुदाय राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं था. आरक्षण आंदोलन के बाद से इनमें जागरूकता आई है. सचिन पायलट इस समय इनके सबसे बड़े नेता हैं, लेकिन गुर्जर आरक्षण आंदोलन के अगुवा रहे किरोड़ी सिंह बैंसला ने पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा के टिकट पर लड़ा था. इनका वोट दोनों पार्टियों को जाता है लेकिन इस बार सचिव पायलट के उभरने के बाद उनके प्रति इनमें झुकाव देखा जा सकता है. दूसरी तरफ मीणा समुदाय के बारे में उनका कहना है कि जाट समुदाय की तरह यह भी एक चतुर जाति है. यह जाति किरोड़ी लाल मीणा के पीछे करीब-करीब लामबंद है. किरोड़ी लाल में यह ताकत है कि वह मीणा समुदाय का वोट लामबंद करवा सकते हैं. ऐसे में उनके भाजपा में जाने से उसे फायदा मिलेगा. लेकिन साथ ही राठौर सचेत करते हैं कि जाट और मीणा समुदाय जहां एकतरफा वोट करते हैं, वहां अन्य तमाम जातियां गोलबंद हो जाती है. ऐसे में कई दफा स्थिति पलट भी जाती है.
जाट समुदाय
जाट समुदाय परंपरागत रूप से कांग्रेस को समर्थन करता रहा है. यह एक खेतिहर जाति है और जागीरदारी प्रथा खत्म करने का श्रेय कांग्रेस को देती है. जागीरदारी प्रथा खत्म होने के कारण जाटों को जमीन का मालिकाना हक मिला था. जाटों के बड़े नेता जैसे नागौर से नाथू राम व राम निवास मिर्धा, बीकानेर से कुंभा राम आर्य, शेखावटी से सीसराम ओला और जोधपुर से पारसराम मदेरना कांग्रेस पार्टी के ही हैं. आपातकाल के बाद 1997 में हुए चुनाव में पूरे उत्तर भारत में नाथू राम कांग्रेस के एकमात्र सांसद थे. राज्य के शेखावटी क्षेत्र यानी सीकर, झुंझुनूं और चूरू जिले के अलावा मारवाड़ यानी पश्चिमी राजस्थान के बारमेड़ और नागौर जिलों में इस समुदाय का वर्चस्व है.
1999 में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिलवाया था. उसके बाद से यह समुदाय कांग्रेस और भाजपा के बीच बंटा हुआ है. राज्य में इस समुदाय की आबादी सबसे अधिक यानी करीब 10 फीसदी है. इससे पहले 1998 में कांग्रेस पार्टी ने राज्य में बहुमत मिलने के बाद एक गैर जाट नेता अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया था, जबकि जाट नेता पारसराम मदेरना को स्वाभाविक दावेदार माना जाता था. इसके कारण भी जाट समुदाय कांग्रेस से दूर होता चला गया.
राजनीतिक रूप से सबसे ‘चतुर’ समुदाय
पत्रकार राठौर कहते हैं कि जाट समुदाय राज्य में राजनीतिक रूप से सबसे ‘चतुर’ समुदाय है. वह हमेशा से अपना सीएम मांगता है. वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व सीएम अशोक गहलोत से चिढ़ता है. ओबीसी में शामिल किए जाने के बाद से उसने आरक्षण का खूब फायदा उठाया है. वह लोकल लेवल पर समीकरण देखकर वोट करता है. राज्य में जाट समुदाय सबसे प्रभावी है. उनकी आबादी भी अच्छी-खासी है और विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व भी हमेशा से अच्छा रहा है. हर विधानसभा में करीब-करीब 30 जाट विधायक चुनकर आते रहे हैं. लेकिन इन दिनों में समुदाय के सबसे बड़े नेता और बारमेड़ से सांसद सोनाराम चौधरी भाजपा में अलग-थलग पड़े हुए हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य जाट नेताओं के साथ है जिन्होंने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा था. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट में सांसद सोनाराम ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उनका समुदाय भाजपा से खुश नहीं है और उनको लगता है कि पार्टी में उनकी बात नहीं सुनी जाती. दरअसल जानकारों का कहना है कि जाट समुदाय को अब भी लगता है कि भाजपा राजपूतों की पार्टी है. वे यह सोचकर भाजपा में आए थे कि उनकी बात सुनी जाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
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