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जब प्रेमचंद ने लिखा पहला नाटक और मामा ने कर दिया गायब, पढ़िए 'कलम का सिपाही' की पहली कहानी

13 साल की उम्र में हिंदी साहित्य के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद ने लिखी थी अपनी पहली कहानी.

Published: July 31, 2019 11:23 AM IST

By India.com Hindi News Desk | Edited by Ramendra Nath Jha

जब प्रेमचंद ने लिखा पहला नाटक और मामा ने कर दिया गायब, पढ़िए 'कलम का सिपाही' की पहली कहानी

Birth Anniversary of Munshi Premchand: हिंदी साहित्य के शिल्पी, कलम का सिपाही, उपन्यासकार, कथाकार मुंशी प्रेमचंद की आज जयंती है. मानव जीवन और सामाजिक ताना-बाना को साहित्य के पन्नों पर उतारने वाले प्रेमचंद की अनगिनत रचनाएं आपने पढ़ी ही होंगी. आज उनकी जयंती पर पढ़िए मुंशी प्रेमचंद की लिखी पहली कहानी.

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मेरी पहली रचना

उस वक्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी. हिन्दी बिल्कुल न जानता था. उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था. मौलाना शरर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे. इनकी रचनाएं जहां मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था. उस जमाने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी. उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथों-हाथ बिकते थे. मैं भी उनका आशिक था. स्व. हजरत रियाज़ ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहान्त हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था. उस जमाने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व. मौलाना सज्जाद हुसेन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का अनुवाद ‘धोखा’ या ‘तिलस्मी फ़ानूस’ के नाम से किया था. ये सारी पुस्तकें मैंने उसी जमाने में पढ़ीं और पं. रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति न होती थी. उनकी सारी रचनाएं मैंने पढ़ डालीं.

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उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी गोरखपुर ही के मिशन स्कूल में आठवें में पढ़ता था, जो तीसरा दरजा कहलाता था. रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था. मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टॉक से उपन्यास ले-लेकर पढ़ता था; मगर दुकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियां और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था. दो-तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे. जब उपन्यासों का स्टॉक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलस्मी होशरुबा’ के कई भाग भी पढ़े. इस वृहद् तिलस्मी ग्रन्थ के 17 भाग उस वक्त निकल चुके थे और एक-एक भाग बड़े सुपररॉयल के आकार के दो-दो हज़ार पृष्ठों से कम न होगा. और इन 17 भागों के उपरान्त उसी पुस्तक के अलग-अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे. इनमें से भी मैंने पढ़े. जिसने इतने बड़े ग्रन्थ की रचना की, उसकी कल्पना-शक्ति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान किया जा सकता है. कहते हैं, ये कथाएं मौलाना फैजी ने अकबर के विनोदार्थ फारसी में लिखी थीं. इनमें कितना सत्य है, कह नहीं सकता; लेकिन इतनी वृहद् कथा शायद ही संसार की किसी भाषा में हो. पूरी एंसाइक्लोपीडिया समझ लीजिए. एक आदमी तो अपने 60 वर्ष के जीवन में उनकी नकल भी करना चाहे, तो नहीं कर सकता. रचना तो दूसरी बात है.

उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी-कभी हमारे यहां आया करते थे. अधेड़ हो गये थे; लेकिन अभी तक बिन-ब्याहे थे. पास में थोड़ी-सी जमीन थी, मकान था, लेकिन घरनी के बिना सब कुछ सूना था. इसलिए घर पर जी नहीं लगता था. नातेदारियों में घूमा करते थे, और सबसे यही आशा रखते थे, कि कोई उनका ब्याह करा दे. इसके लिए सौ-दो-सौ खर्च करने को भी तैयार थे. क्यों उनका ब्याह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था. अच्छे-खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूंछें, औसत कद, सांवला रंग. गांजा पीते थे, इससे आंखें लाल रहती थीं. अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे. शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे. और मांस मछली नहीं खाते थे.

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आख़िर एक बार उन्होंने भी वही किया, जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं. एक चमारिन के नयन-बाणों से घायल हो गये. वह उनके यहां गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी. जवान थी, छबीली थी, और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भांति प्रसन्न मुख और विनोदनी थी. ‘एक समय सखि सुअरि सुन्दरि’ वाली बात थी. मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा. बातों-बातों में उससे छेड़छाड़ करने लगे. वह इनके मन का भाव ताड़ गयी. ऐसी अल्हड़ न थी. और नखरे करने लगी. केशों में तेल भी पड़ने लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो. आंखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आयी, और काम में ढिलाई भी शुरू हुई. कभी दोपहर को आयी और झलक दिखाकर चली गयी, कभी सांझ को आयी और एक तीर चलाकर चली गयी. बैलों को सानी-पानी मामू साहब खुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते, युवती से बिगड़ते क्योंकर? वहां तो अब प्रेम उदय हो गया था. होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी; मगर अबकी गजी की साड़ी न थी, खूबसूरत-सी सवा दो रुपये की चुंदरी थी. होली की त्योहारी भी मामूल से चौगुनी दी. और यह सिलसिला यहां तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गयी.

एक दिन सन्ध्या-समय चमारों ने आपस में पंचायत की. बड़े आदमी हैं तो हुआ करें, क्या किसी की इज्जत लेंगे! एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आंख उठाकर न देखा, (हालांकि यह सरासर ग़लत था) और एक यह हैं कि नीच जाति की बहू-बेटियों पर भी डोरे डालते हैं! समझाने-बुझाने का मौका न था. समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उलटे और कोई मामला खड़ा कर देंगे. इनके कलम घुमाने की तो देर है. इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए. इज्जत का बदला खून ही चुकाता है, लेकिन मरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो सकती है.

दूसरे दिन शाम को जब चम्पा मामू साहब के घर में आयी तो उन्होंने अन्दर का द्वार बन्द कर दिया. महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था. चाहे कुछ हो जाय, कुल मरजाद रहे या जाय, बाप-दादा का नाम डूबे या उतराय!

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उधर चमारों का जत्था ताक में था ही. इधर किवाड़ बन्द हुए, उधर उन्होंने द्वार खटखटाना शुरू किया. पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई असामी मिलने आया होगा, किवाड़ बन्द पाकर लौट जाएगा; लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाये. जाकर किवाड़ों की दराज से झांका. कोई बीस-पचीस चमार लाठियां लिए द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की चेष्टा कर रहे थे. अब करें तो क्या करें? भागने का कहीं रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते. समझ गये कि शामत आ गयी. आशिकी इतनी जल्दी गुल खिलाएगी यह क्या जानते थे, नहीं इस चमारिन पर दिल को आने ही क्यों देते. उधर चम्पा इन्हीं को कोस रही थी-तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज्जत लुट गयी. घर वाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे, कहती थी, कभी किवाड़ बन्द न करो, हाथ-पांव जोड़ती थी, मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था. लगी मुंह में कालिख कि नहीं?

मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आये थे. कोई पक्का खिलाड़ी होता तो सौ उपाय निकाल लेता; लेकिन मामू साहब की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गयी. बरौठ में थर-थर कांपते ‘हनुमान-चालीसा’ का पाठ करते हुए खड़े थे. कुछ न सूझता था. और उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था, यहां तक कि सारा गांव जमा हो गया. बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने के लिए आ पहुंचे. इससे ज्यादा मनोरंजक और स्फूर्तिवर्द्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द एक औरत के साथ घर में बन्द पाया जाए! फिर वह चाहे कितना ही प्रतिष्ठित और विनम्र क्यों न हो, जनता उसे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकती. बढ़ई बुलाया गया, किवाड़ फाड़े गये और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले. चम्पा आंगन में खड़ी रो रही थी. द्वार खुलते ही भागी. कोई उससे नहीं बोला. मामू साहब भागकर कहां जाते? वह जानते थे, उनके लिए भागने का रास्ता नहीं है. मार खाने के लिए तैयार बैठे थे. मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी. जिसके हाथ जो कुछ लगा-जूता, छड़ी, छाता, लात, घूंसा अस्त्र चले. यहां तक मामू साहब बेहोश हो गये और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझकर छोड़ दिया. अब इतनी दुर्गति के बाद वह बच भी गये, तो गांव में नहीं रह सकते और उनकी जमीन पट्टीदारों के हाथ आएगी.

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इस दुर्घटना की खबर उड़ते-उड़ते हमारे यहां भी पहुंची. मैंने भी उसका खूब आनन्द उठाया. पिटते समय उनकी रूप-रेखा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना करके मुझे खूब हंसी आयी. एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे. ज्योंही चलने-फिरने लायक हुए, हमारे यहां आये. यहां अपने गांव वालों पर डाके का इस्तग़ासा दायर करना चाहते थे. अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखायी होती, तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती; लेकिन उनका वही दम-खम था. मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगड़ना और रोब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा था! अब तो मेरे पास उन्हें नीचा दिखाने के लिए काफी मसाला था!

आखिर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना एक नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनायी. सब-के-सब खूब हंसे. मेरा साहस बढ़ा. मैंने उसे साफ-साफ लिखकर वह कापी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया. दिल में कुछ डरता भी था, कुछ खुश भी था और कुछ घबराया हुआ भी था. सबसे बड़ा कुतूहल यह था कि ड्रामा पढ़कर मामू साहब क्या कहते हैं. स्कूल में जी न लगता था. दिल उधर ही टंगा हुआ था. छुट्टी होते ही घर चला गया. मगर द्वार के समीप आकर पांव रुक गये. भय हुआ, कहीं मामू साहब मुझे मार न बैठें; लेकिन इतना जानता था कि वह एकाध थप्पड़ से ज्यादा मुझे मार न सकेंगे, क्योंकि मैं मार खाने वाले लड़कों में न था.

मगर यह मामला क्या है! मामू साहब चारपाई पर नहीं हैं, जहां वह नित्य लेटे हुए मिलते थे. क्या घर चले गये? आकर कमरा देखा वहां भी सन्नाटा. मामू साहब के जूते, कपड़े, गठरी सब लापता. अन्दर जाकर पूछा. मालूम हुआ, मामू साहब किसी जरूरी काम से घर चले गये. भोजन तक नहीं किया. मैंने बाहर आकर सारा कमरा छान मारा मगर मेरा ड्रामा-मेरी वह पहली रचना-कहीं न मिली. मालूम नहीं, मामू साहब ने उसे चिरागअली के सुपुर्द कर दिया या अपने साथ स्वर्ग ले गये?

(साभारः हिन्दी समय)

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Published Date: July 31, 2019 11:23 AM IST