Ghalib Birth Anniversary: एक ऐसा शायर जिसके शेर बन गए अदब के अहम दस्तावेज़, पढ़ें बुनियाद के वो 10 शेर

ग़ालिब ने जितनी आसानी से फ़ारसी कविताओं को हिंदुस्तानी ज़बान दे दी उतनी ही आसानी से हिंदुस्तान और सरहद पार वालों ने इन्हें सर आंखों पर बिठा लिया.

Updated: December 27, 2019 10:47 AM IST

By Faizan Anjum

Ghalib Birth Anniversary: एक ऐसा शायर जिसके शेर बन गए अदब के अहम दस्तावेज़, पढ़ें बुनियाद के वो 10 शेर

नई दिल्लीः मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ‘ग़ालिब’, महज़ एक नाम नहीं बल्कि एक बुनियाद है. उर्दू और फ़ारसी का एक ऐसा शायर जिसने शायरी के मयार को ही बदल दिया. बचपन में ही बाप के साए से महरूम हुआ यह शख्स अपनी ज़िंदगी में मशक्कतों के एक पहाड़ तोड़ चुका था. आगरा के एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में जन्में ग़ालिब का आज जन्मदिन है. 27 December 1797 को इस दुनिया ने एक अज़ीम शख़्सियत को अपने रुख़्सार से लगाया. ग़ालिब ने जितनी आसानी से फ़ारसी कविताओं को हिंदुस्तानी ज़बान दी उतनी ही आसानी से हिंदुस्तान और सरहद पार वालों ने इन्हें सर आंखों पर बिठा लिया. ग़ालिब के लिखे शेर महज़ पन्नों तक क़ैद नहीं थे, उन्हें उर्दू इतिहास का एक अहम दस्तावेज़ समझा गया.

किसी भी शायर के लिए शायद इससे बड़ी बात कुछ और नहीं हो सकती है. इस महान कलमकार को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के ख़िताब से भी नवाज़ा गया. इस सुख़नवर ने अपनी ज़िंदगी में एक दरबारी कवी के साथ-साथ शाही इतिहासविद का भी भार ढोया है. उनके कई कलाम हर सदी में ज़िंदा रहने की सलाहियत रखते हैं. ग़ालिब ने अपने आप को परिभाषित करने के लिए महज़ इस एक शेर का सहारा लिया-

“हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”

इस शेर ने ग़ालिब की ज़िंदगी का उन्वान बदल दिया. ग़ालिब के यौम-ए-पैदाइश मुबारक़ के मौक़े पर पेश है उनके कुछ मशहूर शेर:

1.हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है

2. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

3. उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

4. मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

5. रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

6. आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

7. न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !

8. हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

9. हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

10. ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

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