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Dr. Rajendra Prasad: नेहरू ने मना किया, फिर भी सोमनाथ मंदिर चले गए थे राजेंद्र प्रसाद, जानें देश के पहले राष्ट्रपति की कहानी

President of India: भारत में राष्ट्रपति चुनाव का माहौल चल रहा है. देश के 14वें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल समाप्त होने वाला है और नए राष्ट्रपति के लिए चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. ऐसे में आपको हम देश के सभी राष्ट्रपतियों के बारे में बताने वाले हैं.

Updated: June 24, 2022 1:13 PM IST

By Avinash Rai

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देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद,

Dr. Rajendra Prasad/ First President of India: भारत को साल 1947 में अंग्रेजों ने आजादी दी लेकिन भारतीय संविधान का निर्माण 26 जनवरी 1950 को किया गया. इसी के साथ भारत एक गणतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बन गया. डॉ. राजेंद्र प्रसाद (Who is Dr.Rajendra Prasad) को भारत के पहले राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त है. यह वह समय था जब भारत दुनिया के नक्शे पर नए आयाम गढ़ने को तैयार था, उड़ान भरने को तैयार था. इस समय डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भारत के राष्ट्रपति का पद मिला. इस लेख के माध्यम से हम लोगों को डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बारे में बताने वाले हैं. युवा पीढ़ी को यह जानना अति आवश्यक है कि जीवन में कितने भी शीर्ष पर पहुंचने के बावजूद भी कोई शख्स कितनी सादगी से अपने जीवन को जी सकता है.

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सिवान का लाल बना भारत का प्रथम नागरिक

3 दिसंबर 1884 को बिहार के सिवान जिले के जीरादेई गांव डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म हुआ था. इनके पिता का नाम महादेव सहाय था. इनकी प्राथमिक शिक्षा गांव में ही हुई. दरअसल यह वह समय था जब शिक्षा का आरंभ फारसी भाषा से किया जाता था. इस कारण राजेंद्र प्रसाद को पढ़ाने के लिए मौलवी आया करते थे. राजेंद्र प्रसाद पढ़ाई में बचपन से ही अव्वल थे. उस वक्त के नियमों के तहत डॉ. राजेंद्र प्रसाद का 12 वर्ष की आयु में राजवंशी देवी से बाल विवाह करा दिया गया.

प्रेसीडेंसी कॉलेज से की पढ़ाई

डॉ. राजेंद्र प्रसाद अब बड़े हो चुके थे और आगामी शिक्षा के लिए उन्होंने कलकत्ता का रुख किया. यहां उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में पहला स्थान हासि किया और उन्हें 30 रुपये प्रति महीने की छात्रवृति भी दी गई. यह पहली बार था जब जीरादेई गांव का कोई लड़का कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुंचा था. सन 1902 में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया और साल 1915 में कानून में मास्टर की डिग्री में विशिष्टता पाने के लिए राजेंद्र प्रसाद को स्वर्ण पदक भी मिला था. इसके बाद उन्होंने कानून में डॉक्टरेट की भी उपाधि प्राप्त की.

सादा जीवन उच्च विचार

यह वह समय था देश में ब्रिटिश साम्राज्य अपने चरम पर था. भारत के आमजनों द्वारा ब्रिटिश सामानों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा था. लेकिन उच्च शिक्षा के बावजूद डॉ. राजेंद्र प्रसाद हमेशा धोती कुर्ता और सर पर टोपी पहने दिखते. अपने परिवार में वे सबसे छोटे थे, इस कारण उन्हें काफी लाड-प्यार मिला. अपने जीवन के शुरुआती दौर में डॉ. राजेंद्र प्रसाद रुढ़िवादी विचार के थे. क्योंकि वे खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे ब्राह्मण के हाथ के अलावा किसी और के हाथ का छुआ खाना नहीं खाते. लेकिन जब वे मोहनदास करमचंद गांधी के संपर्क में आए तो उनके ये विचार बदल गए और उन्होंने रुढ़िवादी मानसिकता का त्याग किया. बता दें कि राजेंद्र प्रसाद को देशरत्न के नाम से भी जाना जाता है. कहते हैं कि गांधी द्वारा ही राजेंद्र प्रसाद को यह उपाधि दी गई थी.

स्वाधीनता आंदोलन से राजनीति का सफर

डॉ. राजेंद्र प्रसाद गांधी से काफी प्रभावित थे. यही कारण था कि पहले पश्चिमी और विदेशी कपड़े पहनने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने विदेशी कपड़ो की आहूति दी और स्वदेशी को अपनाया और हमेशा धोती-कुर्ता पहने दिखे. साल 1905 में गोपाल कृष्ण गोखले चाहते थे कि राजेंद्र सर्वेंट्स सोसायटी ऑफ इंडिया की सदस्यता लें. लेकिन राजेंद्र अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहते थे. यही कारण था कि उन्होंने गोखले के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

इस समय तक राजेंद्र कानून की डिग्री प्राप्त कर चुके थे और इनका उठना बैठना अपने अपने क्षेत्रों के विद्वानों के बीच होने लगा. इस समय तक वे कांग्रेस कमेटी के सदस्य बन चुके थे. इमानदार और मेहनत, लगन तथा पार्टी के प्रति समर्पण की भावना उन्हें गांधी के करीब ले आई. गांधी के प्रभा में आने के बाद राजेंद्र प्रसाद ने अपने रुढ़िवादी विचार का त्याग किया. अब वे इस मानसिकता से उपर उठ चुके थे और स्वाधीनता आंदोलन में नए आयाम गढ़ने को तैयार थे. चंपारन आंदोलन गांधी और राजेंद्र को और करीब लाई. राजेंद्र प्रसाद कई बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रह चुके हैं. देश और पार्टी के प्रति समर्पण की भावना के कारण ही साल 1950 में देश को अपना पहला राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के रूप में मिल गया. डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भारत का दो बार राष्ट्रपति बनने का भी गौरव प्राप्त है. राजेंद्र प्रसाद को उनके योगदान के लिए साल 1962 में भारत रत्न से सम्मानित भी किया गया.

राजेन्द्र प्रसाद का निधन

सादगी पसंद व बिहार के गांधी (Gandhi of Bihar) के नाम से चर्चित डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपित के कार्यकाल को खत्म करने के बाद राजनीति से सन्यास ले लिया. 28 फरवरी 1963 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति पंचतत्व में विलीन हो गए. उनके जीवन से जुड़ी किताबों को पढ़ने पर समझ आता है कि राजेंद्र बेहद निर्मल और दयाल स्वभाव के व्यक्ति थे. उनकी विनम्रता ही उनके राष्ट्रपति पद की गरिमा में और चार चांद लगाती है.

आजादी के आंदोलन में निभाई भूमिका

चंपारण सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और असहोग जैसे बड़े आंदोलनों राजेंद्र प्रसाद ने अपनी भूमिका निभाई है. इस कारण उन्हें कई बार जेल की भी यात्रा करनी पड़ी है.

बच्चों को पढ़ाए जाते हैं ये किस्से

डॉ. राजेंद्र प्रसाद जब प्रेसीडेंसी कॉलेज में थे उस दौरान का एक किस्सा भी पश्चिम बंगाल की स्कूलों मे पढ़ाया जाता है. जब राजेंद्र प्रसाद प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे. यहां परीक्षा के दौरान एक दिन वे देरी से पहुंचे तो उन्हें कॉलेज में प्रवेश की इजाजत नहीं मिली. बड़ी मिन्नते करने के बाद उन्हें परीक्षा हॉल में लाया गया. लेकिन तब तक काफी समय व्यर्थ हो चुका था. गेट से परीक्षाहॉल में ले जाने वाले गेटमैने ने राजेंद्र प्रसाद को यह तक कहा कि अब काफी समय बीत चुका है और परीक्षा देने का भी कोई फायदा नहीं होगा. लेकिन राजेंद्र प्रसाद फिर भी परीक्षा में बैठे और परीक्षा में उन्होंने टॉप किया था.

नेहरू से कई मुद्दों पर विवाद

वैसे तो राजेंद्र प्रसाद का विवादों से कोई नाता नहीं नहीं था लेकिन जवाहर लाल नेहरू से कई मुद्दों पर उनका राजनीतिक मतभेद था. ऐसा भी कहा जाता है कि नेहरू सी राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे लेकिन सरदार पटेल और कुछ अन्य वरिष्ठ नेताओं ने जब हस्तक्षेप किया तब नेहरू अपने फैसले से पीछे हटे. ऐसा कई बार हुआ जब नेहरू से राजेंद्र प्रसाद का विवाद सार्वजनिक रूप से देखने को मिला. भारतीय संविधान को तैयार किया जा रहा था और इस समय भीमराव अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था. इस बिल का नेहरू ने समर्थन किया लेकिन बतौर संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने इसका विरोध किया. राजेंद्र प्रसाद देश में कॉमन सिविल कोड लाना चाहते थे.

सोमनाथ मंदिर पहुंचे थे राजेंद्र प्रसाद

विदेशी आक्रांताओं द्वारा सोमनाथ मंदिर को कई बार बर्बाद किया जा चुका था. लेकिन आजादी के बाद सोमनाथ मंदिर का शिलान्यास किया गया. इस कार्यक्रम में डॉ.राजेंद्र प्रसाद को आने का न्यौता मिला. नेहरू नहीं चाहते थे कि राजेंद्र प्रसाद इस कार्यक्रम में जाएं लेकिन राजेंद्र प्रसाद सोमनाम मंदिर के शिलान्यास के मौके पर पहुंचे, जबकि नेहरू द्वारा राजेंद्र प्रसाद को इस कार्यक्रम में जाने से मना किया गया था. रामचंद्र गुहा की किताब इंडिया ऑफ्टर गांधी में इस बाबत जिक्र किया गया है. इसमें बताया गया है कि राष्ट्रपति होने के अलावा उनके निजी जीवन में उनकी अपनी आस्था थी. इस कारण वे सोमनाथ मंदिर के शिलान्यास के मौके पर पहुंचे थे जो कि नेहरू को कुछ खास रास नहीं आया था.

कई किताबों के थे लेखक

मेधावी छात्र, विद्वान और पढ़ाकू किस्म के राजेंद्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा तो लिखी ही. साथ ही राजेंद्र प्रसाद ने इंडिया डिवाइडेड, बापू के कदमों में बाबू, सत्याग्रह एट चंपारण, गांधीजी की देन, भारतीय संस्कृति और खादी का अर्थशास्त्र जैसी कई किताबें लिखीं, जिनमें ’इंडिया डिवाइडेड’ काफी प्रसिद्व एवं प्रमाणिक हैं.

पटना के आश्रम में बिताया आखिरी दिन

मृत्यु से पहले और राजनीति से सन्यास लेने के बाद राजेंद्र बाबू ने अपना वक्त पटना के सदाकत आश्रम में बिताया. बता दें कि इस आश्रम को भी वही दर्जा प्राप्त है जो गांधी के साबरमती आश्रम को प्राप्त है. बता दें कि में यह स्थान कांग्रेस पार्टी का कार्यालय है. 28 फरवरी 1963 को राजेंद्र बाबू का निधन हो गया. उनकी अंतिम विदाई के समय देश के कई कद्दावर नेता मौजूद थे लेकिन जवाहर लाल नेहरू नहीं आए थे. राजेंद्र प्रसाद की पोती तारा सिन्हा द्वारा लिखी किताब राजेंद्र प्रसाद: पत्रों के आईने में जिक्र किया गया है कि जब नेहरू द्वारा तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन को भी राजेंद्र प्रसाद के अंतिम संस्कार में न जाने की सलाह दी गई थी. लेकिन राधाकृष्णन ने उनकी बातों पर खास ध्यान नहीं दिया और वे पटना पहुंचे. इसी के साथ राजेंद्र प्रसाद पंचतत्व में विलीन हो गए और देश के सामने कई अच्छी यादों का संग्रह छोड़ चले गए.

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